ज़मी पर बिछी,
रेत के आंसुओं से बनी,
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी मुस्कुरा कर वो,
गुलाब की पंखुङी बनती,
तो कभी दर्द के आंसुओं से,
ओंस की बूंदे बनी थी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी पत्थरों से भी,
खुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
वो मेरी तन्हाईयों की,
आवाज़ भी न बनी थी,
कि अपने जले पन्नों का,
मातम मना बैठी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
रेत के आंसुओं से बनी,
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी मुस्कुरा कर वो,
गुलाब की पंखुङी बनती,
तो कभी दर्द के आंसुओं से,
ओंस की बूंदे बनी थी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी पत्थरों से भी,
खुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
वो मेरी तन्हाईयों की,
आवाज़ भी न बनी थी,
कि अपने जले पन्नों का,
मातम मना बैठी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
कभी पत्थरों से भी,
ReplyDeleteखुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
वो मेरी तन्हाईयों की,
आवाज़ भी न बनी थी,
कि अपने जले पन्नों का,
मातम मना बैठी।
Bahut badhiya .jaari rahe .
अति सुंदर!
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत ख़यालात.
कमोबेश यही अपनी भी जिंदगी की कविता है.
बहुत अच्छी रचना.
बधाई.
अच्छी अभिव्यक्ति है. लिखते रहें
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है !
ReplyDeletehttp://sandoftheeye.blogspot.com
जिन्दगी मेरी,
ReplyDeleteजो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी पत्थरों से भी,
खुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
वाह जी वाह अति सुंदर आप बहुत अच्छा लिखते हो जारी रखें धन्यवाद
बहुत ही उत्तम
ReplyDeleteकभी पत्थरों से भी,
ReplyDeleteखुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
-वाह! बहुत सुन्दर.बहुत बधाई.
कविता वाकई अच्छी है लेकिन इसके साथ लगी फोटो मेल नही कर रही.... लाल सुर्ख गुलाब, कुछ पंखुडिया टूटी हुई और मोटी किताब..... थोड़ा चेंज होना चाहिए था एकदम थोड़ा सा......
ReplyDeleteबहुत सुंदर ख़याल!
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