Sunday, December 14, 2008

फिर मूक बने हो तुम...

बाहर की गन्दी नजरों से,
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,

इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,

बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, December 2, 2008

कितना भी आंसुओं को रोक लें.......

जिन्दगी अब मुझे,
यूं भाती नहीं,
कितना भी आंसुओं को रोक लें,
हंसी आती नहीं,
हर मोङ पर सिर्फ,
दर्द और तन्हाईयां हैं,
जिधर भी नज़र डाले,
तङपती परछाइयां हैं,
वो भी (परछाइयां) मुझे देखकर,
मुझसे ही दूर जाती रहीं,
कितना भी आंसुओं को रोक लें,
हंसी आती नहीं,
जिन्दगी अब मुझे,
यूं भाती नहीं।
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प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र-साभार गूगल)