बाहर की गन्दी नजरों से,
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,
इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
............
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,
इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
Excellent poem. Very appropriate for today's situation!
ReplyDeleteप्रीती जी ! हम तो ऊपर के बोर्ड पर ही मर मिटे . ऐसी चींजें जिन्दगी में कुछ ही होती हैं आज उन्ही मे से एक ये हुई मेरे साथ इसके साथ आपका यह एहसान भी याद रहेगा . बहुत बहुत दिली धन्यवाद !
ReplyDeleteसटिक , सामयिक और लाजवाब रचना !
ReplyDeleteराम राम !
aaj ki paristhiti ko sadhe dhang se darshaati rachna.....
ReplyDeleteसुंदर भाव हैं
ReplyDeleteबहोत ही बढ़िया कविता लिखा है आपने प्रीती जी,ऊपर लगी हुई तस्वीर आपकी कविता को मजबूती देने के साथ साथ सार्थकता भी देता है बहोत ही सुंदर मनोभाव लिखी एक बेहतरीन कविता पढ़ने को मिली... बहोत बधाई आपको प्रीती जी ...
ReplyDeleteनई ग़ज़ल आज शाम के महफ़िल में सजेगी आपको आमंत्रित करता हूँ अभी से ही..
अर्श
बहुत अच्छा लिखा है प्रेरणादायक
ReplyDeleteसही कहा कहीं न कहीं कसूरवार हम ही हैं....
अक्षय-मन
क्या बात है, बहुत सुंदर कविता, सुंदर भाव.
ReplyDeleteधन्यवाद
सुंदर भाव बहुत सुंदर कविता.धन्यवाद.
ReplyDeleteबात नहीं किसी धर्म की है,
ReplyDeleteन ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
bahut sunder rachana
badhai.
ReplyDeleteगहरी एवं प्रशंसनीय मनोभिव्यक्ति पर बधाई!
ReplyDeleteप्रिय तारिका,
ReplyDeleteइतनी सुन्दर भावाभिव्यक्ति पर आपको बहुत बधाई और इतने के ऊपर आज ढे़र सारा आशीर्वाद भी. बहुत बेहतर बन पडी़ है कविता, आज तारिका आपकी. इसे कायम रखना और मुझे सदा अपने साथ पाना. प्रेमाशीर्वाद सहित.
bahut badhiya hai. badhai.
ReplyDeleteनज़रें झुकाकर मूक बन कर घर अपना जला दिया
ReplyDeleteएक माँ होने पर भी उसका ही दामन जला दिया
अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है -आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
अब समझाइश का कोई असर नही होने वाला /सुफैद कपडे को इतना काला कर दिया गया है कि उस पर समझाइश के छींटों का कोई फर्क नही पड़ने वाला /ऐसा क्यों कर रहे हैं इसका जवाब ही नही है उनके पास ब्रेन वाश
ReplyDeleteबात नहीं किसी धर्म की है,
ReplyDeleteन ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
पता नहीं कब समझेंगे ये लोग...
---मीत
aapki rachana bahut shandar lagi
ReplyDeleteinhi tevaro ko barkarar rakein
kabhee apne blog par bhee padhare
ऊपर की तस्वीर को देर तक देखता रहा .लगा जैसे कविता यही कह रही है....किस जगह की फोटो है......
ReplyDeleteबाहर की गन्दी नजरों से,
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,
बहुत बढिया !
ReplyDeleteExcellent poem really.. photo bhi sahi lagaya... dekhiye sadbudhi mile shayad isse.. lekin lagta nahi hai.. jisse bhi milta hu sabhi bahut kattarwadi ho gaye hai..
ReplyDeleteNew Post - एहसास अनजाना सा.....
kaafi samay baad aapke blog ko padha...aur ek samvedanshil kavita padhne mili...behtarin...
ReplyDeleteअच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteमौजूं कह दिया आपने। मुंबई हमलों ने भारतीय जनता को एक मुखर विरोध करने पर उतारू कर दिया। ये लोकतंत्र का मूल अधिकार अब सार्थक रूप में सामने आया है, वरना इससे पहले तो नेताओं ने इस अधिकार से हित साधने के लिए जनता को प्रायोजित ही किया है।
ReplyDeletebehtareen RACHNA, BADHAII
ReplyDeleteप्रीति जी,
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
निम्न लाइनों पर .....
इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
मैं तो ये कहना चाहूँगा कि अधिक खतरा तो हमें आतंकी चेहरा लगाये बैठे लोगो से नही , बल्कि सफेदपोश बने आतंकियों और उनके छुपे सरपरस्तों से है.
चन्द्र मोहन गुप्त
sahi main bahut he khubsoorat likha hai aapne....har ek line is kavita ka aaj ka situation keh raha hai....
ReplyDeleteइक मां की ही,
ReplyDeleteपैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बहुत सुंदर भाव सुंदर शब्द संयोजन
*****EXCELLENT
ReplyDeleteis tasveer ki tareef kiye bagair tippani adhoori hai..
ReplyDelete"uparyukt" mudde pe ek "upyukt" kavita :)
isi vishay pe likhi ek ghazal par nazar daale aur maargdarshan kare
http://pyasasajal.blogspot.com/2008/12/blog-post_23.html
kya kahun....aur kahane ko kyaa rah gayaa....???
ReplyDeleteनववर्ष की हार्दिक ढेरो शुभकामना
ReplyDeleteक्या खूब कहा है, इस आपकी रचना में दो कविताएं हैं एक कविता वो जो आपने नीचे लिखी है और दूसरी कविता बोर्ड पर लिखी है। वाह। आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteइक मां की ही,
ReplyDeleteपैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बात नहीं किसी धर्म की है,
ReplyDeleteन ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें
प्यारी तारिका,
ReplyDeleteआपकी क़लम इतने दिनों से से ख़ामोश क्यूँ है ? चलाइए चलाइए उसे । क्या ही अच्छा लिखती हैं आप ! हम इन्तज़ार में हैं । अपने इस बिगब्रदर की इतनी तो बात मानेंगी ना ? और इस बार फिर किसी सुन्दर चित्र के साथ आइएगा जैसा वो प्यारा छोटू था ओ. के. ?
हम सब ब्ला॓गर इन्तज़ार करेंगे. पोस्ट की सूचना मेल कर दीजिएगा. सहूलियत के लिए.
आपका शुभचिंतक