ये हवाऐँ छेङती है,
क्यों मुझे कुछ इसतरहां
सिमटा हुआ आँचल मेरा,
मचल उठता है बादलों में।
खुल रहे केसू भी,
जो अब तक कैद थे.
इन चोटियों में,
और लटें गुदगुदाने लगीं हैं,
कोमल कपोलों को मेरे।
क्यों मुझे कुछ इसतरहां
सिमटा हुआ आँचल मेरा,
मचल उठता है बादलों में।
खुल रहे केसू भी,
जो अब तक कैद थे.
इन चोटियों में,
और लटें गुदगुदाने लगीं हैं,
कोमल कपोलों को मेरे।
दुर से आती हवाऐं,
ला रही पैगाम किसका,
जिसकी खुशबू की महक,
इन वादियों में बिखरी हुई है।
मैं करुं इंतज़ार उसका,
जो तसव्वुर में ही रहा,
न स्वप्न है न ही हक़ीकत,
फिर भी जीवन जी रहा।
...............
फिर भी जीवन जी रहा।
...............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
वाह! बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteन स्वप्न है न ही हक़ीकत,
ReplyDeleteफिर भी जीवन जी रहा ।
सुंदर अति सुंदर ! कमाल की रचना !
न स्वप्न है न ही हक़ीकत.. भई वाह ..वाह ..!
मैं करुं इंतज़ार उसका,
ReplyDeleteजो तसव्वुर में ही रहा,
न स्वप्न है न ही हक़ीकत,
फिर भी जीवन जी रहा।
अच्छा है.
मैं करुं इंतज़ार उसका,
ReplyDeleteजो तसव्वुर में ही रहा,
न स्वप्न है न ही हक़ीकत,
फिर भी जीवन जी रहा।
बहुत ही उम्दा, सुंदर रचना।
bahut acchi rachana |
ReplyDeleteये हवाऐँ छेङती है,
ReplyDeleteक्यों मुझे कुछ इसतरहां
सिमटा हुआ आँचल मेरा,
मचल उठता है बादलों में।
क्या बात है ? बधाई !
बहुत सुन्दर्!
ReplyDeleteये हवाऐँ छेङती है,
क्यों मुझे कुछ इसतरहां
सिमटा हुआ आँचल मेरा,
मचल उठता है बादलों में।
बहुत खूब!
मैं करुं इंतज़ार उसका,
ReplyDeleteजो तसव्वुर में ही रहा,
न स्वप्न है न ही हक़ीकत,
फिर भी जीवन जी रहा।
बहुत अच्छी रचना है !!!!!!!!!!
bahut hi achi rachna badhai aap ko
ReplyDeleteरोमानी आैर दार्शनिक अंदाज है आपका। जमीनी हकीकत पर भी आपकी सशक्त लेखनी चले। शुभकामनाएं।
ReplyDelete"दुर से आती हवाऐं,
ReplyDeleteला रही पैगाम किसका,
जिसकी खुशबू की महक,
इन वादियों में बिखरी हुई है।"
उत्तम..
Bahut khoob.
ReplyDeleteआपने हवाओं के पैगाम को भी लिख दिया- बहुत ही खूबसूरत कविता है !!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसंवेदना जताने का शुक्रिया
ReplyDelete...कविता सुंदर है.
वाह अति सुन्दर। आपके लेखन की जितनी तारीफ की जाए कम ही होगी।
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