Thursday, July 2, 2009

जब बारिश भीग रही थी..........

सुबह हुई तो देखा,
बारिश भीग रही थी,
हम भी भीग रहे थे,
तन्हाई भीग रही थी।



जब-जब देखूं उसको,
वो शरमा-शरमा जाती,
लाली सी हो जाती,
बिजली चमका जाती।



मन देख-देख यूं उसको,
मयूरा डोल रहा था,
हरी-हरी धरा पर,
हर पत्थर बोल रहा था।


सूरज की आंखे कैसे,
धुंधला-धुंधला सी जाती,
जब काली-काली बदरा,
सूरज के आगे आती।
.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)

18 comments:

  1. सुबह हुई तो देखा,
    बारिश भीग रही थी,
    हम भी भीग रहे थे,
    तन्हाई भीग रही थी।बेहद भाव पूर्ण रचना,मनोगत भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिय भाषा का कमनीय प्रयोग प्रशंसनीय है।

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  2. मन देख-देख यूं उसको,
    मयूरा डोल रहा था,
    हरी-हरी धरा पर,
    हर पत्थर बोल रहा था।
    बहुत सुन्दर भावो से सजाया है

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  3. बहुत सुंदर शब्द संयोजन. और सशक्त प्रस्तुतिकरण.

    रामराम.

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  4. बहुत खूब...बढ़िया लिखा है अपने...
    नीरज

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  5. बेहद खूबसूरत रचना

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  6. सुबह हुई तो देखा,
    बारिश भीग रही थी,
    हम भी भीग रहे थे,
    तन्हाई भीग रही थी।

    bahut hi shandar rachna hai...
    ek-ek shabd rimjhim fuharo main bheega lag raha hai.....

    aapki shandar rachna k liye aapko dher sari badheeyan.....

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  7. बरखा के भाव खूबसूरत है।
    सुबह हुई तो देखा,
    बारिश भीग रही थी,
    हम भी भीग रहे थे,
    तन्हाई भीग रही थी।

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  8. सुन्दर अभिव्यक्ति!!

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  9. Waah !! Bahut khoob ! Sundar abhivyakti.

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  10. shabdon se bahut sunder chitran... hai barish ka...

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  11. प्रीति जी,
    बारिश के लिए अब आपसे ऐसी ही कविताओं की उम्मीद है. वैसे बारिश तो हो ही रही है.

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  12. प्रीति जी,
    प्रकृति के सुन्दर भीगे, हरे-भरे, धुप-छाओं से भरे मनोहारी दृश्यों का सुन्दर सजीव चित्रण कर ह्रदय को आनंदित कर दिया, पर एक अंत की एक त्रुटी रह-रह कर खल रही है, स्वयं विचार करें..............

    जब काली-काली बदरा,
    सूरज के आगे आती।

    "बदरा" पुल्लिंग और आती स्त्रीलिंग, सामंजस्य बैठता सा नहीं दीखता.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  13. बहुत अच्छा लगता है आपकी रचनाएं पढकर !

    धन्यवाद !

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  14. अच्छे बिम्ब !

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