जब कहते हैं, आजाद हैं हम,
तो नारी को, क्यों दिया बंधन,
लम्बें परदें की ओटों में,
क्यों बांध रहे उसको बंधन?
क्या सोचा है,..कभी तुमने,
कैसे जीवन को जीती वो?..
रस्मों की ओट में डाले हुए,
सारे बंधन को सहती वो?..
कहते हैं हया का परदा है,
क्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
बस एक घूंघट के घूंटों में,
क्यों तिल-तिल मार रहे उसको।
तो नारी को, क्यों दिया बंधन,
लम्बें परदें की ओटों में,
क्यों बांध रहे उसको बंधन?
क्या सोचा है,..कभी तुमने,
कैसे जीवन को जीती वो?..
रस्मों की ओट में डाले हुए,
सारे बंधन को सहती वो?..
कहते हैं हया का परदा है,
क्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
बस एक घूंघट के घूंटों में,
क्यों तिल-तिल मार रहे उसको।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)
कहते हैं हया का परदा है,
ReplyDeleteक्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
बस एक घूंघट के घूंटों में,
क्यों तिल-तिल मार रहे उसको।
बहुत सटीक और मार्मिक लिखा है आपने. नमन है आपको इस रचना के लिये.
रामराम.
सत्य को बड़े ही करीने से लिखा है आपने प्रीती जी बहोत खूब ढेरो बधाई आपको... उम्दा लेखन के लिए...
ReplyDeleteअर्श
याद करें- मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब का सदाबहार शेर जो पंकज उधास साहब की कॄपा से किसी वक्त घर -घर में बजता पाया जाया था-
ReplyDeleteबेपरदा नजर आईं जो कल चन्द बीवियाँ
अकबर जमीं में गैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछ जो हमने आपका परदा कहाँ गया
कहने लगीं कि अक्ल पे मरदों के पड़ गया.
और -
आँचल को परचम बनाने वाली बात तो उर्दू की प्रगतिशील शायरी का मुख्य स्वर रहा है. हिन्दी की समकालीन कविता भी इस स्वर से जुदा नहीं है !
अच्छी अभिव्यक्ति !!
कहते हैं हया का परदा है,
ReplyDeleteक्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
--गजब...अद्भुत अभिव्यक्ति!! बहुत बढ़िया,,, बधाई.
प्रीती जी आप को यह कविता और बढ़ानी चाहिए थी ऐसा मुझे लग रहा कुछ अधूरी सी लग रही है । आपका प्रयास अच्छा है ।शुभकामनाएं
ReplyDeletesach ko kuredkar ...sach bayan karti rachna
ReplyDeleteachchi lagi kavita...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रीति जी आप शायद महसूस न करें मैने तो यह महसूस किया है कि अगर नारी ने आज़ादी का अर्थ लिया है तो बेपरदा होने के लिए अधिक लिया है लेकिन मानसिक रूप से खुलने में आप जैसी कुछेक ही युवतियाँ या नारियाँ होंगी अधिकतर तो आज़ादी का अर्थ अश्लीलता से ही देख रहीं हैं मेरा यह मानना है, अगर आप मेरे विचारों से सहमत न हों तो क्षमा भी साथ-साथ कर दें। मेरे मन में आपकी कविता पढ़कर जो प्रतिक्रिया आई वो मैने बेबाक होकर दे डाली।
ReplyDeleteसशक्त रचना......
ReplyDeleteकहते हैं हया का परदा है,
ReplyDeleteक्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
जबाब नही प्रीति जी, बहुत ही सुंदर रचना( कविता)
धन्यवाद
कहते हैं हया का परदा है,
ReplyDeleteक्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
बस एक घूंघट के घूंटों में,
क्यों तिल-तिल मार रहे उसको।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
आजकी नारी की स्तिथि पर बेजोड़ कविता है आपकी...एक दाम सच्ची और पाक...
ReplyDeleteनीरज
bahut hi sashkt abhivyakti aur gahri bhavnayein.
ReplyDeleteकहते हैं हया का परदा है,
ReplyDeleteक्या परदा नही, तो हया भी नहीं?..
बस एक घूंघट के घूंटों में,
क्यों तिल-तिल मार रहे उसको।
बहुत मार्मिक लिखा है...
नारी को उसका असली स्थान पता नहीं कब मिलेगा...
मीत
बहुत अच्छा लिखा है आपने
ReplyDeletePreetiji,
ReplyDeletePehlee baar aapke blog pe aayee hun...aapne stambhit kar diya..!
Awwal to aapne mere blog pe dee tippaneeke liye dhanywad kehnaa chahungee.
"Parde" ke chalan parse ek Akbar Ilahabadee kaa sher yaad aayaa,jise meree Daadee sunaya karteen theen...kuchh istarah thaa(shayad!):
Dekhee jo chand beparda beebiyaan,
Gairate qaumeese Akbar zameeme gad gayaa,
Poochha jo unse ke, aapkaa,
Pardaa wo kya hua?
Kehne lageen, ke "aqlpe mardon ke pad gayaa"!
Aapki harek rachnaa achhee hai...kehnekee zaroorat nahee...comments gawah hain !
Uf ! Sher likh deneke baad dekha ki use bilkul sahee taurse pehlehee kiseene pesh kar diyaa hai...maafee chahtee hun...!
ReplyDeleteYebhi kehtee chalun ki mai naa lekhika hun na kavi !
क्या सोचा है ,कभी तुमने
ReplyDeleteकैसे जीवन को जीती वो
रस्मों की ओट में डाले हुए
सारे बंधन को सहती वो....
सुन्दर अभिव्यक्ति।....
सशक्त अभिव्यक्ति है ।
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