कोई पूछे अगर, तो क्या जवाब दूं,
कि मैं कौन हूं ,और कंहा हूं मैं ?
मैं नदी हूं, जो है बह रही,
लिए संग अपने, कई सफर,
चली जा रही, बस तलाश है,
कहीं पर मिले, उसे सागर लहर।
मैं ख्वाब हूं, जो बुना आस ने,
लिए हर ख्वाहिश को, पास में,
चंद लम्हें, और बस,
छू लूं मैं, सारे हाथ से।
मैं परिंदा हूं, जिसे उङने की आरज़ू,
गिर-गिर के, संभलना सीखती,
पंख फङफङा लूं, बस अगर,
पहुंचूं गगन के, छोर तक।
मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
रंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
....................
कि मैं कौन हूं ,और कंहा हूं मैं ?
मैं नदी हूं, जो है बह रही,
लिए संग अपने, कई सफर,
चली जा रही, बस तलाश है,
कहीं पर मिले, उसे सागर लहर।
मैं ख्वाब हूं, जो बुना आस ने,
लिए हर ख्वाहिश को, पास में,
चंद लम्हें, और बस,
छू लूं मैं, सारे हाथ से।
मैं परिंदा हूं, जिसे उङने की आरज़ू,
गिर-गिर के, संभलना सीखती,
पंख फङफङा लूं, बस अगर,
पहुंचूं गगन के, छोर तक।
मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
रंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
....................
प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)
मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
ReplyDeleteरंगो का है, उसे इंतज़ार,
सुन्दरतम एहसास ! लाजवाब रचना ! शुभकामनाएं !
BHAHUT KHUB BHAHUT KHUB
ReplyDelete"MAIN KHWAB HU JO BUNA AAS NE"
BHAUT HI ACCHA LAGA
मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
ReplyDeleteरंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
bahut sunder likha aapne
regards
Ajneya jee ne kaha tha
ReplyDelete" jo mam hai wahee mametar bhee hai"
Bahut sundar rachna. ek vyaktigat ehsas jo har kisee ko apna ehsas lagta hai. kavita se aur kya umeed kee ja saktee.
subhkaamna
ranjit
खूबसूरत प्रवाह लिए हुए है आपकी रचना
ReplyDeletesunder
ReplyDeleteमैं नदी हूं, जो है बह रही,
ReplyDeleteलिए संग अपने, कई सफर,
चली जा रही, बस तलाश है,
कहीं पर मिले, उसे सागर लहर।
bahot hi sundar lahaje me likhi behatarin poem... aapko dhero badhai ......
lajawab
ReplyDeletepoori rachna bahut hi pyari hai.......
ReplyDeletebahut hi satik kalpna aur sundar ehesaas piroye hue hai.....
bahut khub....
बहुत बढ़िया है ....
ReplyDeleteब्लॉग का शीर्षक 'मेरा सागर' का आज आपकी कविता में विस्तार है। बहुत सुंदर।
ReplyDeleteएक बहुत ही गहरी सोच लिये है आप की कविता
ReplyDeleteधन्यवाद
परिंदा हूं, जिसे उङने की आरज़ू,
ReplyDeleteगिर-गिर के, संभलना सीखती,
पंख फङफङा लूं, बस अगर,
पहुंचूं गगन के, छोर तक।
बहुत सुंदर रचना है आप की प्रीती जी...वाह...आप के ब्लॉग पर आना घर आने जैसा लगता है...जल महल की छवि घर और बचपन की यादें तजा कर देती है...
नीरज
bahut jandar, narayan narayan
ReplyDeleteमैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
ReplyDeleteरंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
पिछली सभी कविताओं की तरह सुन्दर कविता!
ReplyDeleteshabd jab nihshabd hote hain
ReplyDeleteto satya utarta hai
prashno ke gahwar se aatma bolti hai
bahut sundar
अच्छा लिखा है आपने । िवषय की अभिव्यक्ित प्रखर है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख महिलाओं के सपने की सच्चाई बयान करती तस्वीर लिखा है । समय हो तो उसे पढें और राय भी दें-
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com