आस के पंखों को,
फैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
मैं अन्धेरों से,
कभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
आस के पंखों को,
फैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
फैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
मैं अन्धेरों से,
कभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
आस के पंखों को,
फैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
.............
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र - सभार गूगल)
किस बात का डर....आह!! वाह!! बस लिखती रहो, शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteबहुत खूब ! सर्वोत्तम ***** 5 stars
ReplyDeleteप्रीति जी, कम शब्दों में बड़ी गहरी बात कही है आपने। खासकर- उजालों में ख्वाब होले-होले से पिघलता है... कल्पना का खूबसूरत शाब्दिक श्रृंगार है। आपका ब्लॉग पहली बार देखा है, शब्द और रचनात्मकता का अच्छा तालमेल बनाया है आपने।
ReplyDeleteएक बात और मैं कहना चाहता हूं -कृपया इसे अन्यथा न लें- कि कहीं-कहीं मात्रा की गड़बड़ी खटकती है। लेकिन इन सब से ऊपर आपकी रचना का उजाला है। और निश्चित तौर पर इस उजाले में हर कोई जाना चाहेगा! बधाई।
-महेश
क्योंकि उजालों में,
ReplyDeleteमेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
" very good expressions"
Regards
क्योंकि उजालों में,
ReplyDeleteमेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
ye panktiya achhi lagi.
DARNA MANA HAI
ReplyDeleteवाह ......
बहुत ही खूबसूरत कविता........
मन को छूती हुई..
क्योंकि उजालों में,
ReplyDeleteमेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है
एक नयापन लिए ख़ूबसूरत पंक्तियाँ!
बहुत खुब,
ReplyDeleteधन्यवाद
आस के पंखों को,
ReplyDeleteफैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
bahut sunder
regards
photo aur kavita dono bahut khubsurat
ReplyDeleteReally Amazing!
ReplyDeleteWaah ! bahut hi khoobsoorat...bhaavpoorn.
ReplyDeleteसुंदर भावों के लिए धन्यवाद! यह डर न होता तो प्राणिजगत कब का ख़त्म हो गया होता बेतुके दुस्साहस कर-कर के.
ReplyDeleteडर जाती हूं उजालों से,
ReplyDeleteक्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
अदभूत।
आस के साथ हो विश्वास
ReplyDeleteतो 'डर' भी डर जायेगा
आस के फैले हुए पंखों से
मैं अन्धेरों से,
ReplyDeleteकभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
bahot badhiyan dhnyabad
ब्लौग अच्छा लगा...
ReplyDeleteआस के पंखों को,
ReplyDeleteफैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
क्या बात है .बहुत ही शानदार ,जीवंत अभिव्यक्ति .
आस के पंखों को,
ReplyDeleteफैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
आस के पंखो को फैलाते जाईये......पंख मजबूत होंगे.....तो कोई डर नहीं....और अगर कमजोर...तो जीने का फायदा नहीं.....मगर कविता में भी एक जीवन ही है....और जीवन को कविता-सा फैलाते जाईये....हम सबको अच्छा लगेगा...सच....
ReplyDeleteबस लिखती रहो,शुभकामनाऐं...
ReplyDeletevery nice poetry.
ReplyDeleteBouth He aacha Post Kiyaa Aapne Ji
ReplyDeleteShyari Is Here Visit Jauru Karo Ji
http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/
Etc...........