Saturday, November 8, 2008

आस के पंखों को फैलाऊं तो.....

आस के पंखों को,
फैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
मैं अन्धेरों से,
कभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
आस के पंखों को,
फैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
.............
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र - सभार गूगल)

23 comments:

  1. किस बात का डर....आह!! वाह!! बस लिखती रहो, शुभकामनाऐं.

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  2. बहुत खूब ! सर्वोत्तम ***** 5 stars

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  3. प्रीति जी, कम शब्दों में बड़ी गहरी बात कही है आपने। खासकर- उजालों में ख्वाब होले-होले से पिघलता है... कल्पना का खूबसूरत शाब्दिक श्रृंगार है। आपका ब्लॉग पहली बार देखा है, शब्द और रचनात्मकता का अच्छा तालमेल बनाया है आपने।
    एक बात और मैं कहना चाहता हूं -कृपया इसे अन्यथा न लें- कि कहीं-कहीं मात्रा की गड़बड़ी खटकती है। लेकिन इन सब से ऊपर आपकी रचना का उजाला है। और निश्चित तौर पर इस उजाले में हर कोई जाना चाहेगा! बधाई।
    -महेश

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  4. क्योंकि उजालों में,
    मेरा ख्वाब,
    कहीं, होले-होले से,
    पिघलता है,
    " very good expressions"

    Regards

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  5. क्योंकि उजालों में,
    मेरा ख्वाब,
    कहीं, होले-होले से,
    पिघलता है,
    ye panktiya achhi lagi.

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  6. DARNA MANA HAI

    वाह ......
    बहुत ही खूबसूरत कविता........
    मन को छूती हुई..

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  7. क्योंकि उजालों में,
    मेरा ख्वाब,
    कहीं, होले-होले से,
    पिघलता है

    एक नयापन लिए ख़ूबसूरत पंक्तियाँ!

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  8. आस के पंखों को,
    फैलाऊं तो, ‘तारिका’
    न जाने क्यों,
    डर लगता है।
    bahut sunder
    regards

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  9. photo aur kavita dono bahut khubsurat

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  10. Waah ! bahut hi khoobsoorat...bhaavpoorn.

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  11. सुंदर भावों के लिए धन्यवाद! यह डर न होता तो प्राणिजगत कब का ख़त्म हो गया होता बेतुके दुस्साहस कर-कर के.

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  12. डर जाती हूं उजालों से,
    क्योंकि उजालों में,
    मेरा ख्वाब,
    कहीं, होले-होले से,
    पिघलता है,

    अदभूत।

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  13. आस के साथ हो विश्वास
    तो 'डर' भी डर जायेगा
    आस के फैले हुए पंखों से

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  14. मैं अन्धेरों से,
    कभी डरती नहीं,
    डर जाती हूं उजालों से,
    क्योंकि उजालों में,
    मेरा ख्वाब,
    कहीं, होले-होले से,
    पिघलता है,

    bahot badhiyan dhnyabad

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  15. आस के पंखों को,
    फैलाऊं तो डर लगता है,
    कंही गिर न जाऊं मैं,
    फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
    क्या बात है .बहुत ही शानदार ,जीवंत अभिव्यक्ति .

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  16. आस के पंखों को,
    फैलाऊं तो, ‘तारिका’
    न जाने क्यों,
    डर लगता है।

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  17. आस के पंखो को फैलाते जाईये......पंख मजबूत होंगे.....तो कोई डर नहीं....और अगर कमजोर...तो जीने का फायदा नहीं.....मगर कविता में भी एक जीवन ही है....और जीवन को कविता-सा फैलाते जाईये....हम सबको अच्छा लगेगा...सच....

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  18. बस लिखती रहो,शुभकामनाऐं...

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  19. Bouth He aacha Post Kiyaa Aapne Ji



    Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji

    http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/

    Etc...........

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