चांद को चांद न कहूं,
रजनी का चिराग कहूं,
तारों को तारे न कहूं,
निशा की बारात कहूं।
देख कर यूं पलटना,
ये लहरें नहीं,
सागर की अंगड़ाई हैं,
दर्द के भंवर ने जैसे,
कहीं गर्म हवा सहलाई है।
पक्षियों का चहकना भी,
हो जैसे मीठा राग कोई,
एक कतार में बैठे हो,
कई कलाकार कोई।
नदिया भी जैसे,
आईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
झूम कर आती है जब,
काली बदरा,
देखो कैसे,
शरमा के बरस जाती है।
रजनी का चिराग कहूं,
तारों को तारे न कहूं,
निशा की बारात कहूं।
देख कर यूं पलटना,
ये लहरें नहीं,
सागर की अंगड़ाई हैं,
दर्द के भंवर ने जैसे,
कहीं गर्म हवा सहलाई है।
पक्षियों का चहकना भी,
हो जैसे मीठा राग कोई,
एक कतार में बैठे हो,
कई कलाकार कोई।
नदिया भी जैसे,
आईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
झूम कर आती है जब,
काली बदरा,
देखो कैसे,
शरमा के बरस जाती है।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)
सुन्दर!
ReplyDeleteसुन्दर उपमा आपकी तारे हैं बारात।
ReplyDeleteबहुत बधाई आपको बेहतर है सौगात।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
wah! subah or khubshurat ho gai. narayan narayan
ReplyDeletewah! subah or khubshurat ho gai. narayan narayan
ReplyDeleteपक्षियों का चहकना भी,
ReplyDeleteहो जैसे मीठा राग कोई,
... बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति ।
जाने पहचाने दृश्य को नई नवेली उपमाओं से संवारा है आपने.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteदर्द के भंवर ने जैसे,
ReplyDeleteकहीं गर्म हवा सहलाई है।
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteरामराम.
झूम कर आती है जब,
ReplyDeleteकाली बदरा,
देखो कैसे,
शरमा के बरस जाती है।
bahut hi khubsurat abhivyakti
बेहद खूबसूरत भाव हैं .....बहुत ही प्यारी है
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण रचना है। बधाई।
ReplyDeleteप्रक्रति का सुंदर चित्रण कर दिया आपने अपने शब्दों के द्वारा...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा... सुंदर...
सच में अगर हम सोचे तो प्रक्रति का कितने ही तरीकों से चित्रण हो सकता है...
मीत
bahut hi khoobsurat rachna
ReplyDeleteकमाल की रचना है...शब्द और भावः दोनों बेजोड़...
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर!
ReplyDeleteaapki kalpnayein aur aapke shabd dono hi lajawab hain.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. बधाई
ReplyDeleteप्रीती जी,
ReplyDeleteबहुत ही मीठी बात कही है :-
नदिया भी जैसे,
आईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
झूम कर आती है जब,
काली बदरा,
देखो कैसे,
शरमा के बरस जाती है।
अच्छी रचना के लिये, बधाईयाँ.
मुकेश कुमार तिवारी
नदिया भी जैसे,
ReplyDeleteआईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
बहुत सुन्दर कल्पना व प्रस्तुति है बधाई
युग्म पर मेरी गज़ल पर टिपण्णी हेतु आभार
श्याम सखा श्याम
कविता या गज़ल में हेतु मेरे ब्लॉग पर आएं
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सस्नेह
पक्षियों का चहकना भी,
ReplyDeleteहो जैसे मीठा राग कोई,
एक कतार में बैठे हो,
कई कलाकार कोई।
नदिया भी जैसे,
आईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
waah!bahut hi sundar chitran hai...sundar kavita Preeti ji.
क्या बात है...
ReplyDeleteसुंदर कल्पना की सुंदर शब्द-सज्जा
खूबसूरत कल्पना, सुंदर शब्द।
ReplyDelete-----------
खुशियों का विज्ञान-3
एक साइंटिस्ट का दुखद अंत
ajee मैंने कहा वाह....वाह...वाह....वाह....वाह....बहुत खूब....और कहूँ तो क्या कहूँ....??
ReplyDeleteपक्षियों का चहकना भी,
ReplyDeleteहो जैसे मीठा राग कोई,
एक कतार में बैठे हो,
कई कलाकार कोई...
बहुत ही खूबसूरत कविता है ये आपकी....
बहुत ही खूबसूरत
ReplyDeleteSalona he tera davat.... saloni he teri kalam...
ReplyDeletesundar he kalpna or sundar he tera srujan...