जिन्दगी चलती रही,
ख्वाब कुछ बुनती रही,
कुछ पलों की छांव में,
अपना सफ़र चुनती रही।
पैर में छाले पङे,
पर न डगमग पांव थे,
पथ के हर पत्थर में जैसे,
शबनमों के बाग़ थे।
गरदिशों की चाह में,
हर सफ़र है तय किया,
हर मुश्किल का सामना,
हर क़दम डट कर किया,
है तमन्ना अब के मंजिल,
जिन्द़गी को मिल जाए,
और फिर हो सामना,
खुद का,
खुदी के आईने से........
प्रीती बङथ्वाल “तारिका”
(चित्र – साभार गूगल)
सुंदर रचना प्रीती जी , बहुत खूब । गरदिश को क्या इस तरह से भी लिखा जा सकता है , अक्सर गर्दिश लिखे देखा है , तभी पूछ रहा हूं । बताईये तो ज़रा ।
ReplyDeleteहै तमन्ना अब के मंजिल,
ReplyDeleteजिन्द़गी को मिल जाए,
और फिर हो सामना,
खुद का,
खुदी के आईने से........
वाह बहुत अच्छी लगी रचना बधाई।
सुंदर रचना प्रीती जी , बहुत खूब
ReplyDeleteजिन्दगी चलती रही,
ReplyDeleteख्वाब कुछ बुनती रही,
कुछ पलों की छांव में,
अपना सफ़र चुनती रही।
बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है
सुंदर रचना...
ReplyDeletebahut khoobsurat....
ReplyDeletewah!!
अच्छा लगा इसे पढ़कर खासकर ये लाइनें-
ReplyDeleteपैर में छाले पङे,
पर न डगमग पांव थे,
पथ के हर पत्थर में जैसे,
शबनमों के बाग़ थे।