Friday, October 31, 2008

आई दिवाली, गयी दिवाली

आई दिवाली, गयी दिवाली,
खुशीयां भी भर गयी दिवाली,
रंग बिरंगी रंगोली संग,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

लक्ष्मी-गणेशजी को सजा-धजा कर,
लड्डू पेङे की थाल सजा कर,
शंखनाद की गूंज में भर कर,
रोशन-रोशन हुई दिवाली,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

हम भी बोले, आप भी बोले,
एक-दूजे को रस में घोले,
शुभ दिवाली-शुभ दिवाली,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र-सभार गुगल)

Friday, October 24, 2008

आ गये त्योहार....

हमारी सोसायटी में हर त्योहार बहुत ही धूम-धाम से और सभी सोसायटी वाले मिलकर मनाते हैं। ये बात वैसे मैंने पहले भी बताई है। इससे त्योहार की खुशी चौगुनी हो जाती है। इस बार हमारी सोसायटी में नवरात्रों के बाद और करवाचौथ से पहले डांडिया प्रौग्राम का आयोजन किया गया। हफ्ते भर पहले से ही ग्रुप में डांस की प्रेक्टिस होने लगी। कुछ पुराने जो कि शुरू से ही इस सोसायटी(जब से बनी है) में रहते हैं उनका एक ग्रुप हुआ, और जो बाद में आए हैं उनका दूसरा ग्रुप बना। ग्लास रूम(सोसायटी के ऑफिस का एक हॉल रूम) प्रेक्टिस के लिए ले लिया गया। समयानुसार बारी-बारी से वहां दोनों ग्रुप अपनी प्रैक्टिस करते थे। खूब मजा आता था, घर का सारा काम निपटा कर हम सब वहां जाने को तैयार रहते थे।
मैं पहले ग्रुप में थी। सबसे पहले गाना सलेक्ट किया गया। हमने सुहाग फिल्म से गाना चुना ‘ओ नाम रे, सबसे बङा तेरा नाम, ओ शेरों वाली’। ये गाना अपने आप में ही पूर्ण लगता है। इसकी शुरुआत जितनी धीरे है अंत उतना ही प्रभावशाली और तेज। डांडिया करने के लिए सही थीम वाला गाना। दूसरे ग्रुप का गाना गुजराती में था, वो गाना भी सुनने में अच्छा था, गाना श्रीकृष्ण भगवान पर था, सो उन्होंने अपने ग्रुप का नाम कृष्णा ग्रुप रख लिया। अब हमें भी अपने ग्रुप का नाम रखना था। बहुत सोचा गया सभी से पूछा गया। सभी ने अच्छे-अच्छे नाम बताये (संस्कृति, संगम, सतरंगी, इन्द्रधनुष, संगिनी) । अंत में सभी संगिनी के लिए सहमत हो गये। नाम बताने के सभी के अपने दृष्टिकोण थे जो सही भी थे लेकिन सभी संगिनी के लिए मान गये। संगिनी का अर्थ सहेली, इसीलिए ये नाम हमसब को पसंद आया।
जिस दिन प्रोग्राम होना था शाम का समय निश्चित किया गया। हमारा ग्रुप, दूसरे ग्रुप से पहले ही पहुंच गया था। सभी गुजराती तरिके से साड़ी पहन, सज-धज कर आये थे। प्रोग्राम थोड़ा देर से शुरू हुआ, धीरे-धीरे लोगों की भीड़ भी बढ़ने लगी थी। बहुत से लोगों के आने के बाद प्रोग्राम शुरू हुआ। शुरूआत अंताक्षरी से हुई, सास-बहू के दो ग्रुप बनाए गये कुछ लोग सास ग्रुप में और कुछ बहू ग्रुप में हो गये। फिर शुरू हुआ वो मुकाबला जिसे देखने के लिए पूरी सोसायटी बैठी हुई थी। वैसे तो ये प्रोग्राम सिर्फ महिलाओं का ही था पर पुरूष वर्ग ने भी इस में जमकर हिस्सा लिया।
अब सवाल हुआ कि डांडिया में कौन सा ग्रुप पहले अपना प्रदर्शन करेगा। हम लोग उन्हें और वो लोग हमें प्रदर्शन करने के लिए कह रहे थे। मतलब ये था कि पहले कोई भी नहीं करना चाहता था। दोनों ही दूसरे ग्रुप को पहले करते हुए देखना चाहते थे। जो ठीक से अपने और उनमें आंकलन कर सकें, कि बेहतर कौन? लेकिन शुरू तो किसी ने करना ही था तो हम लोग आगे आ गये। हमारा ग्रुप पूरे जोश में था।
बीच में कलश सजा हुआ था और उसके चारों और हम गोला बनाकर डांडिया खेलने लगे। हमने जो डांडिया पेश किया उसे देख कर दूसरी टीम ने पहले ही अपने दांतों तले उंगली दवा ली। वहां पर मौजूद लोगों ने भी विजेता हमे करार दे दिया था। लेकिन कोई किसी से कम ना था, टक्कर तो होनी ही थी। अब दूसरे ग्रुप की बारी थी हम सोच के बैठ गए थे कि ये ग्रुप तो समझो गया, जीत हमारी ही होगी क्योंकि हमने कहीं पर भी गलती नहीं की थी। पर दूसरी टीम की काबलियत पर शक करके हम भूल कर रहे थे। दूसरी टीम ने भी जबरदस्त डांडिया किया और हमें ऐसी टक्कर दी कि हमारे हाथ उनकी वाह वाही में खुद ही उठ गए। कई गलतियां की उन्होंने, पर पहली बार की उनकी ये सफलता बताती है कि हमारा वर्चस्व हमेशा नहीं रहने वाला। कम वो नहीं निकले, लेकिन जीत तो हमारी ही होनी थी।

जजों ने फैसला भी हमारे पक्ष में सुनाया पर पहली बार एंट्री करने के कारण बाद में दोनों टीमों को ही जीता करार दे दिया गया। हम भी काफी खुश थे कि चलो ये अच्छा हुआ कि किसी की हार ना ही किसी की जीत हुई। वर्ना पर्व के माहौल में खटास ही हाथ लगती है।

प्रीती बड़थ्वाल

Monday, October 13, 2008

उसकी एक आदत की तरह


सिर्फ आंसू ही रह गये थे,
आंखों में,
उसकी एक आदत की तरह,
वो जब भी मिला तन्हाई में,
मुझसे,
तो बात हुई,
एक शिकायत की तरह,

न वो समझ सका था मुझे,
न मैं ही समझ रही थी,
वक्त ने भी समझाया हमें तो,
सिर्फ एक आंसू की तरह,
वो जब भी मिला तन्हाई में,
मुझसे,
तो बात हुई,
एक शिकायत की तरह।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - सभार गुगल )

Tuesday, October 7, 2008

जगत जननी मां अम्बे

जगत जननी, जगत अम्बे
तू है मां वर दायनी,
सृष्टी की रचना में तू मां,
तू ही सृष्टी नाशनी।

तू ही अम्बर ,तू धरा मां,
प्रकृति ये तेरी गोद है,
दे रही आंचल, हवा मां,
तेरी नजर, चारों और है।

कर दया मां, हम हैं नादा,
भूल हुई जो माफ करना,
तू है ममता की धनी मां,
हम तो तेरे फूल है।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(आप सभी को नवरात्रों की शुभकामनाऐं। मां दुर्गा सभी को अपना ममता रुपी आशिर्वाद दें यही मां अम्बे से प्रार्थना करती हूं )
(चित्र - सभार गुगल)

Thursday, October 2, 2008

मोम की तरह,आंखों से पिघल जाएंगे

पिछले कई जख्मों को,
दामन में छुपाए बैठी थी,
वो तन्हाई, जो रास्तों पर,
नजरें लगाए बैठी थी,

शायद इस इन्तज़ार में,
कि कभी तो ये भी भर जाएंगे,
उन्हीं रास्तों पर शायद,
वो ख्वाब फिर नजर आएंगे,

जिनको खो कर वो,
एक बार तन्हा हुई थी,
न पाकर उन्हें आंखों में,
फूट-फूट कर रोयी थी,

पर इस बार न जाने क्यों,
उसे एक यंकी था,
शायद उसकी आंखों में,
वो ख्वाब, फिर कंही था,

ऐसा न हो कि,
इस बार भी वो टूट जाए,
उसके थमें आंसू,
इस बार न बिखर जाए,

इस बार जो बिखर गये तो,
कभी उठ नहीं पाएंगे,
मोम की तरह, वो भी,
आंखों से पिघल जाएंगे,

इसलिए शायद वो आज,
यूं सहमी हुई लगी थी,
वो तन्हाई, जो रास्तों पर,
नजरें लगाए बैठी थी,
पिछले कई ज़ख्मों को,
दामन में छुपाए बैठी थी।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - सभार गुगल )