
वो आईना,
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था,
अपने हाथों पे जो,
मेरा नाम लिखा करता था,
जाने कहां गई ,वो,
लकीरें मेरे हाथों से,
जिन लकीरों को,
वो हर शाम पढ़ा करता था।
अब शाम क्या,
सहर भी तन्हा थी,
रात की आंखों में सिर्फ,
डूबी हुई दास्तां थी,
गुम हुई है या वो,
मेरी आंखों का धोखा था,
अपनी ख्वाहिशों में क्या,
स्वप्न तस्वीरें डुबोता था,
वो आईना,
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था।
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था,
अपने हाथों पे जो,
मेरा नाम लिखा करता था,
जाने कहां गई ,वो,
लकीरें मेरे हाथों से,
जिन लकीरों को,
वो हर शाम पढ़ा करता था।
अब शाम क्या,
सहर भी तन्हा थी,
रात की आंखों में सिर्फ,
डूबी हुई दास्तां थी,
गुम हुई है या वो,
मेरी आंखों का धोखा था,
अपनी ख्वाहिशों में क्या,
स्वप्न तस्वीरें डुबोता था,
वो आईना,
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका "