Saturday, February 28, 2009

वो महकती-सी रोशनी...(एक खुशी के नाम)

निशा की चांदनी में,
वो दमकती-सी रोशनी,
रात की रानी से,
वो महकती-सी रोशनी,
कब मेरे दामन में,
उसकी, आहट-सी हुई,
जिसने मेरी रोशनी में भरी,
अपनी-सी रोशनी।।

तिनका-तिनका कर, बटोरती,
बरसों से चली थी,
आज जाकर, मेरे गुलिस्तां में खिली,
एक कली थी,
मेहमा है मेरे दिल में,
उसके आने की हर खुशी,
रात की रानी से,
वो महकती-सी रोशनी।।

शबनम के हर इशारे को,
समझ रही थी वो,
चंचल थी नज़र फिर भी,
एकटक खङी थी वो,
पूछती थी, कब से (मेरी) तकदीर की हुई,
खुशियों से दोस्ती,
रात की रानी से,
वो महकती-सी रोशनी।।
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प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र- साभार गूगल)

Wednesday, February 25, 2009

वो सच में..सब समझ रहा था।



वो खामोश नज़रों से मुझे,
अपलक निहारता,
और फिर, कुछ देर बाद,
नज़रे झुका कर चला जाता,
अपने को बहला कर,
फिर लौटता और मुझे,
फिर उसी हाल में देख कर,
सहम जाता।
ये सब देख रही थी मैं,
अपनी भीगी आंखों से,
मगर, चुप थी ये जानकर,कि
वो कहां समझ पा रहा होगा,
जो अभी सब हो रहा था,
हमारे आस-पास।
दिन के सांझ होने तक,
माहौल, कुछ काम में उलझा,
तभी, वो पास आकरके,
मुझसे बोला,
मम्मा बस, अब नही रोना हां....,
क्या ये वो ही है जिसे मेंने,
अभी नादा ही समझा था,
वो छोटा-सा, मेरा प्यारा,
ये सबकुछ समझता था।
वो सच में सब समझ रहा था।
..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)



Tuesday, February 24, 2009

जब गया ‘वो’, मैं पुकारती रही…






ज़िन्दगी बनी ख़्वाब कभी,
ख़्वाब कभी ज़िन्दगी बनी,
जब कभी भी तलाश की,
मैं खुद को ढूढ़ती रही।

एक साया दिख के क्यों?
बार-बार ओझल हुआ,
मैं सोच में उलझी हुई, कि
‘वो’ कोई अपना-तो नहीं।

जीवन नहीं लंबा सफर,
ये जान कर भी, मोह में,
उङ गये पंछी को...बस,
मैं पुकारती रही...बस पुकारती रही।


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(काफी दिन हो चले हैं कि लिखना एक दम छूट सा गया है। जब कोई अपना, बहुत अपना हमसे दूर बहुत दूर चला जाता है तो हर भाव चरम पर होते हैं। फिर से अब जिंदगी को राह पर तो चलना ही होगा और हमें उसके साथ। इसी कोशिश में तारिका।)

प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)