बाहर की गन्दी नजरों से,
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,
इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
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घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,
इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,
बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"