Friday, November 21, 2008

क्यों तुम मुझसे रुठे हो।





पापा....क्यों मुझसे रुठे हो,
क्या...मैं नहीं हूं तुम्हारी,
मां.....क्यों ना मुझसे बोल रही,
जब मिली तुमसे ही सांस हमारी।।


क्यों ना अपनाते मुझको,
क्यों ना होती परवाह मेरी,
क्यों ना तुम भैया के जैसे,
मुझको भी लोरी सुनाती हो।।

दो जवाब, इन कलियों को,
क्यों न खिलने देते तुम,
मन में लिए प्रश्न कई,
पूछ रहा अधखिला “वो” फूल।।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)

Wednesday, November 19, 2008

बाकि...गंगा मैया पर छोङ दो।



पाप करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
खाओ पियो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।
ऐश करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
गंद करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।
शहर का कचरा लाकर,
गंगा मैया पर छोङ दो,
फूंक दो मुझको, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
हर-हर गंगे बोल, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।

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प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)

Monday, November 17, 2008

कोई पूछे अगर...मैं कौन हूं....


कोई पूछे अगर, तो क्या जवाब दूं,
कि मैं कौन हूं ,और कंहा हूं मैं ?

मैं नदी हूं, जो है बह रही,
लिए संग अपने, कई सफर,
चली जा रही, बस तलाश है,
कहीं पर मिले, उसे सागर लहर।

मैं ख्वाब हूं, जो बुना आस ने,
लिए हर ख्वाहिश को, पास में,
चंद लम्हें, और बस,
छू लूं मैं, सारे हाथ से।
मैं परिंदा हूं, जिसे उङने की आरज़ू,
गिर-गिर के, संभलना सीखती,
पंख फङफङा लूं, बस अगर,
पहुंचूं गगन के, छोर तक।

मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
रंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
....................
प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)

Saturday, November 8, 2008

आस के पंखों को फैलाऊं तो.....

आस के पंखों को,
फैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
मैं अन्धेरों से,
कभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
आस के पंखों को,
फैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
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प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र - सभार गूगल)

Friday, November 7, 2008

ये 'जरुरी' तो नहीं...

हम जो सोचे वही हो,
ये 'जरुरी' तो नहीं,
आज जो है वो कल भी हो,
ये 'जरुरी' तो नहीं।

सांसे कब किसे थाम ले,
जिन्दगी बन कर,
जिन्दगी भी सांसे थाम ले,
ये 'जरुरी' तो नहीं।

खिले एक फूल जब,
भंवरा भी एक खिल जाता,
रात को बंद हो,
सुबह वो मिले, ये 'जरुरी' तो नहीं।

वो आईना जो,
हर सूरत को दिखलाता,
दिल भी दिखाये, 'तारिका'
ये 'जरुरी' तो नहीं।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - साभार गूगल)

Sunday, November 2, 2008

ख्वाब और जिन्दगी


ख्वाब और जिन्दगी दोनों,
साथ हैं मगर,
रास्ते दोनों के,
जुदा हो गये,
एक बन्द आंखों के तले,
हंसते थे,
दूसरे खुली पलकों पे,
फिदा हो गये,
फिर भी रास्ते दोनों के,
क्यों जुदा हो गये।
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प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र-सभार गुगल )