Monday, July 7, 2008

कुछ पन्ने मेरी किताब के...

जिन्दगी में बहुत से पल हैं जिन्हें भूलना चाहो भी तो नहीं भूल सकते और कुछ ऐसे जो याद भी नहीं। लिखने को बहुत है लेकिन शुरूवात कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। नये सफर से ही शुरू किया जाये ये अपना सफरनामा। बात तबकी जब मेने अपना कदम अपने घर की दहलीज से बाहर निकालकर अपने हमसफर के साथ मिला लिया। वो जो दिलों दिमाग में छाया हुआ था जिसके अलावा ओर कुछ दिखता ही नहीं था। मेरे कोरे कागज में उसका नाम कब शामिल हुआ पता ही नही चला। लेकिन आज हम साथ है ये सबसे बङा सच है। वो समय ऐसा था जो रह-रहकर घर की याद दिलाता और आखों में गंगा-जमुना बहती रहती थी। ऐसे में अगर मेरा साथ दिया तो वो था ‘मेरा हमसफर’ । हमारा साथ होना कोई आसान बात नहीं थी। एक लम्बे अंतराल के बाद हम साथ थे इस बात की खुशी थी। लेकिन घर छूटने का गम भी छोटा नहीं था। घर की याद, हर दिन सुबह ऑखों में आंसू लिए शुरू होती और शाम आंसू लिए खत्म होती। और ‘वो’ मेरा दिल बहलाने के लिए मुझे हसांने के लिए जी तोङ कोशिश करते, और जबकभी कामयाब नहीं हो पाते तो खुद भी रोने लग जाते। हमारी शाम अक्सर अपने घर की छोटी-सी बालकॉनी में चाय की चुस्कीयों के साथ गुजरती।
फिर कुछ समय बाद एक घटना घटी। हम एक दोस्त की शादी से लौट रहे थे कि उस बस की जोरदार टक्कर हो गई। थोङी बहुत चोटें आई लेकिन हम सही सलामत बच गये। तब से बससे जाते हुए डर सा लगता है।
कुछ समय और बीता तो खबर मिली कि हमारी बहन का रिस्ता पक्का हो गया है लेकिन हमारा बुलावा निषेद था। मुझे अंदेशा था लेकिन आशा बिलकुल नही थी। बहुत बुरा लगा था मुझे।
चलो फिर भी ये लगा बुलाया न सही पर शायद कोई रिश्तेदार तो हमसे मिलने जरूर आयेगा। क्योंकि मिलने का बहाना भी था मेरा बेटा जो हुआ था। इसी कारण हम ससुराल से भी सबके मना करने के बावजूद उन्हें नाराज करके और बहुत कुछ सुनने के बाद भी अपने बेटे को लेकर अपने घर लौट आये थे। लेकिन हमसे मिलने कोई नहीं आया। सबने अपनी-अपनी मजबूरी बता दी। क्या मेरी जगह कोई ओर होता तो उससे मिलने भी न आते?
चलो ये दर्द भी दिल में दबा दिया। मालूम था मुझे कि अभी तो शुरूवात थी ये। बहन की शादी के एक महिने बाद ही पापा रिटायर हो गये। घर पर पाठ रखा गया लेकिन वहां भी हमें नहीं बुलाया गया। मैं बहुत रोयी। ये किसी को समझाना बहुत मुसकिल है कि कैसा लगता है जब अपने ही तुम्हें न पूछे।

जारी है........


प्रीती बड़थ्वाल

5 comments:

  1. धन्यवाद समीर जी, चाहुंगी की प्रोत्साहन मिलता रहे और मैं नियमित लिखती रहूं। हर बार आप से(वरिष्ठ ब्लॉगर होने के नाते) ये आशा है कि जब भी लिखुं तो आप अपना विचार जरूर भेजें।

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  2. आप का तहेदिल से स्वागत है, लिखती रहिये...हम आप के साथ हैं..

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  3. swagat hain...

    aur pehli hi post mein aapne qitab-e-zindagi khol di hai bade saaf man se to...bas gujarati mein meri pasand ka ek sher aap ko padhana chahunga hindi mein...

    use sabke saamne na khola karo 'mareez',
    qitab-e-zindagi, koi mazhabi qitab nahin...

    ummid hai aap ko sher samaj bhi aaye aur pasand bhi...

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  4. ताइर जी,
    आपका धन्यवाद, आपने ब्लॉग पढ़ा।
    आप का इशारा किस ओर है मैं जानती हूं।
    लेकिन ये महज 'कहानी' है।
    हम तो सिर्फ इतना जानते हैं---

    अपना गम सब को बताना है तमाशा करना
    अब तो हाल-ए-दिल 'वो'ही पूछेगा तो बताएंगे।

    आज भाग २ पेश है कैसा लगा, अपनी राय जरूर दें।

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  5. कल पीछे आते-आते इस पोस्ट पर आये। आज इसे पढ़ा। इसके बाद की सारी पोस्टें भी पढ़ीं। अब चूंकि अंत की पोस्ट पढ़ चुके हैं तो अच्छा लग रहा है। मेरी तमाम शुभकामनायें आपके परिवार के प्रति। नियमित लिखतीं रहें।

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